भारत में दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण भारतीय संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन स्वास्थ्य मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू बना हुआ है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 जो, "जीवन के अधिकार" की बात कहता है, के दायरे पर दिए अपने एक फैसले में कहा है कि यह "अच्छे स्वास्थ्य के अधिकार" को कवर करता है. हाल के वर्षों में सरकार ने भारत में दवाओं और चिकित्सीय औजारों के मूल्य नियंत्रण के लिए कई कदम उठाएं हैं ताकि सभी को किफायती दरों पर चिकित्सीय लाभ दिए जा सकें. यहां हम, भारत में दवा के मूल्य नियंत्रण के इतिहास के बारे में, दवाओं की कीमतों को कम करने के लिए सरकार द्वारा हाल में उठाए गए कदमों और लोगों एवं उद्योग पर इसके प्रभावों को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं. भारत में दवा के मूल्यों के नियंत्रण का संक्षिप्त इतिहास दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की धारा 3 के तहत जारी किया गया है. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किफायती दरों पर अनिवार्य दवाएं सभी को उपलब्ध हों. पहली बार, दवा मूल्य नियंत्रण आदेश 1962 में हुए भारत–चीन युद्ध के बाद जारी किए गए थे क्योंकि दवा कंपनियों ने मुनाफाखोरी शुरु कर दी थी और जनता के हित में दवा के मूल्यों पर लगाम लगाना अनिवार्य हो गया था. प्रत्येक बीतते वर्षों के साथ इसमें पांच बार संशोधन किया गया है. दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 1995 की भारत में शुरुआत की गई और इसमें 74 बल्क ड्रग्स और उनके सूत्र को कवर किया गया था. इसके नतीजे उम्मीद के अनुसार नहीं मिले क्योंकि कई दवाओं के उत्पादकों ने अपनी विनिर्माण इकाई दूसरे देशों में स्थांतरित कर दी. नतीजा यह हुआ कि उत्पादकों के बाहर चले जाने से आधे उत्पाद का उत्पादन बंद हो गया. किसी चीज का भारतीय उत्पादन काफी महत्वपूर्ण हो गया था क्योंकि पेनिसिलिन का उत्पादन चीन में स्थांतरित कर दिया गया था. वर्ष 1997 में सरकार ने राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) बनाया, इसे डीपीसीओ के प्रावधानों को लागू करने, फार्मा उत्पादों के मूल्यों का निर्धारण/संशोधन करने और नियंत्रित एवं अनियंत्रित दवाओं के मूल्यों की निगरानी करने का काम दिया गया था. राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण नीति– 2012 की स्थापना 07.12.2012 को की गई थी. एनपीपीपी– 2012 की मुख्य विशेषताएं हैं– दवाओं के मूल्यों का विनियमन राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची (एनएलईएम)– 2011 के तहत निर्धारित दवाओं की अनिवार्यता के आधार पर करना, सिर्फ सूत्रीकरण के मूल्यों का विनियमन और बाजार– आधारित मूल्य निर्धारण (एमबीपी) के जरिए सूत्रीकरण का अधिकतम मूल्य निर्धारित करना. डीपीसीओ की नई नीति 2013 में बनाई गई. डीपीसीओ 2013 में भारत के अनिवार्य दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) में बढ़ोतरी की गई और इसके दायरे को 74 दवाओं से बढ़ाकर 799 दवाओं का कर दिया गया. इसकी शुरुआत के बाद से कोई नया निवेश नहीं देखा गया है. गैर– नियंत्रित उत्पादों की तरफ रुख देखा गया है. नतीजतन, डीपीसीओ 2013 की सूची में नई दवाओं और आश्रित ब्रांडों एवं नई दवाओं का औसत गैर–डीपीसीओ 2013 सूची की तुलना में कम हो गया है. वर्ष 2015 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने नई एनएलईएम 2015 सूची में 376 दवाओं को शामिल करने के लिए अनिवार्य दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम), 2011 में संशोधन किया था. नई सूची बनाने के लिए कुल 106 दवाओं को शामिल किया गया और 70 दवाओं को सूची से बाहर निकाल दिया गया. भारत में दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदम 1. दवाओं की कीमतों में कमी सितंबर 2016 में दवा मूल्य नियामक नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) ने करीब 33 अनिवार्य दवाओं का मूल्य कम कर दिया, जिसकी वजह से उनके खुदरा मूल्यों 30-50% तक की कमी हो गई. इन दवाओं में शामिल थीं– एंटीबायोटिक्स और अल्सरेटिव कोलाइटिस, सामान्य सर्दी– जुकाम में इस्तेमाल किए जाने वाले एंटी– एलर्जिक, गठिया, गैस्ट्रो–एसोफेगल रिफल्क्स रोग (गर्ड), सोरैसिस और तपेदिक के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं. इस कदम का उद्देश्य नई दवाओं को दायरे में लाने के लिए मूल्य विनियमन के दायरे में विस्तार कर गंभीर बीमारियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामान्य दवाओं के मूल्यों में कमी करना था. इससे पहले (एनपीपीए) ने 14 सितंबर 2016 को आयोजित अपनी 36वीं बैठक में एक अधिसूचना जारी की जिसमें 18 और दवाओं का अधिकतम मूल्य दिया गया था. एनएलईएम, 2015 में अब मूल्य नियंत्रण के तहत कुल 467 दवाएं आती हैं. " सरकार फिलहाल अनिवार्य दवाओं का मूल्य विशेष चिकित्सा खंड की सभी दवाओं जिनकी बिक्री 1 फीसदी से अधिक है के सामान्य औसत के आधार पर निर्धारित करती है. एनपीपीए ने एक और अधिसूचना जारी की है जिसके अनुसार दवा (मूल्य नियंत्रण) संशोधन आदेश, 2016 की अनुसूची–। के 55 अनुसूचित दवाओं का अधिकतम मूल्य और डीपीसीओ, 2013 के तहत 29 दवाओं का खुदरा मूल्य एनपीपीए निर्धारित/ संशोधित करता है. संबंधित अधिसूचना/आदेश 23.12.2016 को जारी किया गया था. वैसी दवाएं जो मूल्य निर्धारण के तहत नहीं आतीं, निर्माताओं को उनकी खुदरा कीमतों में सालाना 10 फीसदी की अधिकतम बढ़ोतरी करने की अनुमति है. अनिवार्य दवाओं के मूल्य की गणना विशेष चिकित्सा खंड की सभी दवाओं जिनकी बिक्री 1 फीसदी से अधिक है के सामान्य औसत के आधार पर की जाती है. घरेलू सामान्य दवा निर्माताओं के दबाव के बावजूद एनपीपीए चरणबद्ध तरीके से एनएलईएम की कीमतों में लगातार कमी और संशोधन कर रहा है. अब तक एनपीपीए ने 799 दवाओं में से 330 के मूल्य में संशोधन कर दिया है. 2. कोरोनरी स्टेंट की कीमतों में कमी जुलाई 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अनिवार्य दवाओं की राष्ट्रीय सूची, 2015 (एनएलईएम, 2015) में कोरोनरी स्टेंट को शामिल कर लिया. इसके बाद 21 दिसंबर 2016 को औषधि विभाग ने दवा मूल्य नियंत्रण आदेश, 2013 की अनुसूची । में कोरोनरी स्टेंट को 31वें स्थान पर शामिल किया. इस समावेशन ने इसे दवा मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 में परिभाषित "अनुसूचित दवा" का दर्जा दे दिया. 13 फरवरी 2017 को नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) ने एक आदेश जारी किया जिसने कोरोनरी स्टेंट के मौजूदा बाजार मूल्यों को 40 फीसदी तक कम कर दिया. इसने जुलाई 2016 में अनिवार्य दवाओं की राष्ट्रीय सूची में इन्हें शामिल किए जाने से शुरु हुई बहस को समाप्त कर दिया. अधिसूचना ने स्टेंट को दो प्रकार की श्रेणी में रखा है. एक है बेर मेटल स्टेंट (बीएमएस) और दूसरा है ड्रग– इल्युटिंग स्टेंट. स्टेंट एक ट्यूब के आकार का उपकरण होता है. इसे अवरुद्ध रक्त वाहिका में डाला जाता है जो अवरोध को, कभी– कभी भौतिक साधनों द्वारा लेकिन अक्सर धीमी दर पर दी जाने वाली दवाओं के जरिए, दूर करने में मदद करता है. बेर मेटल स्टेंट का प्राइस कैप 7,260रु. है और ड्रग इल्युटिंग स्टेंट का 29,600/–रु. यह प्राइस कैप मौजूदा कीमतों, 25,000-रु. से लेकर 1,50,000 रु. के बीच में है, के मुकाबले 40 फीसदी कम है. उद्योग जगत के सूत्रों का कहना है कि स्टेंट उत्पादों का 35 फीसदी स्पेक्ट्रम के नीचले स्तर पर उपलब्ध है. अधिसूचना स्टेंट के ब्रांडेड या बिना ब्रांड के होने, स्थानीय या विदेश में बने होने पर कोई बात नहीं कहता. लेकिन अधिसूचना में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि काफी समय से देश में इसे बेचा जा रहा था लेकिन अब कोई भी स्टेंट 29,600 रु./– से अधिक की कीमत पर नहीं बेचा जा सकता हालांकि इसमें वैट, स्थानीय करों आदि को जोड़ने की गुंजाइश है. अधिसूचना में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि एक स्टेंट अस्पताल द्वारा लगाया जाता है और आमतौर पर उत्पाद का बिल उसे बेचने वाले लोगों की बजाय संस्थानों द्वारा प्रस्तुत किया जाएगा. अधिसूचना में यह भी कहा गया है नर्सिंग होम्स, अस्पताल और हृदय संबंधी प्रक्रियाओं को करने वाले क्लिनिकों, जो कोरोनरी स्टेंट का प्रयोग करते हैं, उन्हें अधिकतम मूल्य सीमा का अनुपालन करना होगा. उद्योग पर प्रभाव उद्योग के अनुमानों के अनुसार भारत में दवा का कुल बाजार करीब 50 मिलियन डॉलर का है. भविष्य में इसके कई गुना अधिक बढ़ने की संभावना है क्योंकि भारतीय आबादी में मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्या काफी अधिक है. कोरोनरी स्टेंट को मूल्य नियंत्रण के तहत लाने के फायदे और नुकसान का विश्लेषण करने वाली प्रमुख समिति ने पिछले वर्ष सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में भारत में कोरोनरी आर्टरी डिजिज (सीएडी) के काफी अधिक होने की बात का उल्लेख किया था और उसे "प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या" बताया था. इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए स्टेंट को "अनिवार्य", मूल्य नियंत्रण सिद्धांत की मुख्य कसौटी, बताया गया है. उद्योग स्टेंट को प्राइस कैप में लाने से खुश नहीं है. कई भविष्यवाणियों में यह दावा किया गया है कि मरीजों को उद्योग में होने वाले नवीनतम तकनीकी प्रगति से वंचित किया जा रहा है. लेकिन कई स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने इस कदम का स्वागत किया है. कार्यकर्ताओं ने कहा है कि वे जनता के हितों में संतुलन बनाने के लिए डीपीसीओ के अनुच्छेद 19 के प्रयोग का समर्थन करते हैं. लोगों पर प्रभाव कुछ शोधों के अनुसार चिकित्सा खर्च एक व्यक्ति की आमदनी का लगभग 60 फीसदी हिस्सा ले लेते हैं. यह भारत में स्वास्थ्य की दुखद कहानी और क्यों लोग स्वास्थ्य, भोजन और आवास के पैमाने पर खरे नहीं उतरते, को बयां करता है.भारत अपेक्षाकृत एक गरीब देश है. इसलिए जीवन–रक्षक दवाओं और चिकित्सा उपकणों के मूल्यों में कमी हमेशा भारत के लोगों के बीच स्वागत योग्य कदम माना जाएगा.
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